पता नहीं क्यों लेकिन कहीं से एक दिन एक तमन्ना सर चड़ पड़ी - मुझे इन्द्रधनुषी झंडा है बनाना
धीरे-धीरे, अपने दिमाग में ही तैयार होने लगी योजना।
खुद को बता दिया की करना क्या है - अमल हुआ शुरू।
खोल के पुरानी अलमारियाँ और बक्से - तत्पर थी सारी आवश्यकताएं - ढुंढवा लिए सारे धागें, सारे कपड़ें, सारे रंग और कर दिया अभ्यास शुरू
जब भी किसी ने मुझे काम करते हुए देखा... यह पूछा, "क्या बना रही है?"
जब भी बोला की गौरव ध्वज है मुझे बनाना, तो मिला एक ही जवाब, "अच्छा, ठीक है"
शायद उन्हें पता था कि मैं क्या कह रही थी, या फिर जानने की इच्छा नहीं थी।
लेकिन अब जब मैं इस याद को याद करता हूं, तो पुछती हूं कि, "अगर होता किसी ने पुचा, तो देती क्या मैं उत्तर?"
और क्या था - अब तो बस यहीं खुद से जान ना था, कि आखिरकार मैं उत्तर क्या देती।
क्या है इस गौरव का मतलब? क्या जरूरत है इस उत्सव की? क्या खास है ऐसा जो जश्न है जरूरी?
ये गौरव है आनंद, ये है विवेक रहित एक जगह जहां पर है स्वकृति की भावना। जहां रहता है ऐसा मनोविकार जिसका ना है कोई आकार
आजादी और अमन की इस लड़ाई में, खून था और है बहता सिर्फ उन इंद्रधनुषी रंगो का रखने को मान
अपने आप से एक ऐसा युद्ध जिसके पीछे छुपी है खुशी की सदा, जहां मिलता है मानव मन की संतुष्टि और प्रेम का पता
किंतु इस गुलाब के काटे भी है, नुकीले - आघात करने को तैयर। कभी खुशी कभी गम का है सिलसिला - जहां जुड़े और टूटते-बिखरते रहते हैं यार
एक ऐसी अनकही दास्तान जिस्का कभी न हो पाई शुद्ध व्याख्या। उपरोक्त पाठ भी है सिर्फ एक कल्पना... वह भी एसे स्रोत जो है इस लडाई से अभूतपूर्व ।
Great work
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